शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

प्रिय प्रवास अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला। तरु-शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा||

विपिन बीच विहंगम वृंद का। कलनिनाद विवर्द्धित था हुआ। ध्वनिमयी-विविधा विहगावली। उड़ रही नभ-मंडल मध्य थी॥

अधिक और हुई नभ-लालिमा। दश-दिशा अनुरंजित हो गई। सकल-पादप-पुंज हरीतिमा। अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई॥

झलकने पुलिनों पर भी लगी। गगन के तल की यह लालिमा। सरि सरोवर के जल में पड़ी। अरुणता अति ही रमणीय थी॥

अचल के शिखरों पर जा चढ़ी। किरण पादप-शीश-विहारिणी। तरणि-बिम्ब तिरोहित हो चला। गगन-मंडल मध्य शनैः शनैः॥

ध्वनि-मयी कर के गिरि-कंदरा। कलित कानन केलि निकुंज को। बज उठी मुरली इस काल ही। तरणिजा तट राजित कुंज में॥

कणित मंजु-विषाण हुए कई। रणित शृंग हुए बहु साथ ही। फिर समाहित-प्रान्तर-भाग में। सुन पड़ा स्वर धावित-धेनु का॥

निमिष में वन-व्यापित-वीथिका। विविध-धेनु-विभूषित हो गई। धवल-धूसर-वत्स-समूह भी। विलसता जिनके दल साथ था॥

जब हुए समवेत शनैः शनैः। सकल गोप सधेनु समंडली। तब चले ब्रज-भूषण को लिये। अति अलंकृत-गोकुल-ग्राम को॥

गगन मंडल में रज छा गई। दश-दिशा बहु शब्द-मयी हुई। विशद-गोकुल के प्रति-गेह में। बह चला वर-स्रोत विनोद का॥

सकल वासर आकुल से रहे। अखिल-मानव गोकुल-ग्राम के। अब दिनांत विलोकित ही बढ़ी। ब्रज-विभूषण-दर्शन-लालसा॥

सुन पड़ा स्वर ज्यों कल-वेणु का। सकल-ग्राम समुत्सुक हो उठा। हृदय-यंत्र निनादित हो गया। तुरत ही अनियंत्रित भाव से॥

बहु युवा युवती गृह-बालिका। विपुल-बालक वृद्ध व्यस्क भी। विवश से निकले निज गेह से। स्वदृग का दुख-मोचन के लिए॥

इधर गोकुल से जनता कढ़ी। उमगती पगती अति मोद में। उधर आ पहुँची बलबीर की। विपुल-धेनु-विमंडित मंडली॥

ककुभ-शोभित गोरज बीच से। निकलते ब्रज-बल्लभ यों लसे। कदन ज्यों करके दिशि कालिमा। विलसता नभ में नलिनीश है॥

अतसि पुष्प अलंकृतकारिणी। शरद नील-सरोरुह रंजिनी। नवल-सुंदर-श्याम-शरीर की। सजल-नीरद सी कल-कांति थी॥

अति-समुत्तम अंग समूह था। मुकुर-मंजुल औ मनभावना। सतत थी जिसमें सुकुमारता। सरसता प्रतिबिंबित हो रही॥

बिलसता कटि में पट पीत था। रुचिर वस्त्र विभूषित गात था। लस रही उर में बनमाल थी। कल-दुकूल-अलंकृत स्कंध था॥

मकर-केतन के कल-केतु से। लसित थे वर-कुंडल कान में। घिर रही जिनकी सब ओर थी। विविध-भावमयी अलकावली॥

मुकुट मस्तक था शिखि-पक्ष का। मधुरिमामय था बहु मंजु था। असित रत्न समान सुरंजिता। सतत थी जिसकी वर चंद्रिका॥

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

Please is kavita ka bhavarth aur saargarbhit prashna bhi deve

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