शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

जीवन का सच

श्वासों की सीमा निश्चित है, इच्छाओं का अन्त नहीं है.
जिसकी कोई चाह नहीं हो, ऐसा कोई सन्त नहीं है.
सब चाहों में बधे पड़े हैं, सब राहों में अटक् रहें हैं,
कुछ आखों में बसे हुए हें, कुछ आखों में खटक रहैं हैं,
हम तुम सभी ‘त्रिशंकु ‘ अधर मेँ, धरती छूटी गगन नहीं है,
वह है जिंदा लाश जगत मेँ, जिसमें कोई लगन नहीं है,
जिस पथ से चाह मर जाए, ऐसा पन्थ न तन्त कहीं है.

सुबह शाम के आवर्तन हैं, संघर्षों के ताने-बने,
कौन किसी का मित्र यहाँ है, मिल जाते हैं किसी बहाने,
चाव अभावों मेँ पलते हैं, अपनों से अपने जलते हैं,
अधरों पर मुस्कानें रोती, गालों पर आसूँ दलते हैं,
आए,आकर कभी न जाए, ऐसा कहीं बसन्त नहीं है.

हमने तो मरने वालों की, यादों को खोते देखा है,
हमने तो जीने वालों को, चाह मेँ रोते देखा है,
प्यासी नदी पेड़ प्यासे हैं,प्यासी तृप्ति चाह प्यासी है,
‘ विश्वामित्र ‘ ‘मेनका ‘ हम सब, कहीं न कोई सन्यासी है,
कसम तुम्हें है सच-सच कहना , क्या कोई दुष्यन्त नहीं है ?

मिल जाते हैं मित्र राह मेँ, खो जाते हैं मित्र राह मेँ,
साथ चले कुछ दूर यहाँ सब, बिछुड़ गये सब स्वप्न दाह मेँ,
तुमको डर लगता गैरों मेँ, हम तो अपनों से डरते हैं,
एक बार ही नहीं यहाँ तो दिन मेँ बार-बार मरते हैं,
जैसा शासन किया ‘ भरत ‘ ने, ऐसा कोई महन्त नहीं है.

स्वार्थों की   भट्ठी जलती है, श्वासों के दाने भुनते हैं,
काटें ही काटें चुभते हैं, हम तो फूल समझ चुनते हैं,
बोते-बोते रेत हुए सब, खेत पराए हो जाते हैं,
कागज तो सफेद होते हैं, खाते काले हो जाते हैं,
‘  रत्ना ‘ जैसी प्रिय नहीं है, ‘तुलसी ‘ जैसा सन्त नहीं है.

दिन मेँ सौ-सौ    झूठ बोलते, सच पूछो तो सत्य यही है,
भाषाएं कितनी भी हों पर, कविता सबने एक कही है,
श्रोता नहीं ‘शिवाजी ‘ जैसे , ‘भूषण ‘जैसा ओज नहीं है,
जो कविता का मूल्य चुका दे, ऐसा राजा ‘भोज ‘ नहीं है,
‘मीरा ‘ जैसी भक्ति नहीं है, सूरज जैसा सन्त नहीं है.

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

Bahut sunddarkavita

कमल लखेडा़ ने कहा…

इस कविता के लेखक कौन हैं ?

Unknown ने कहा…

70 के दशक के उत्तरार्द्ध में यह कविता साप्ताहिक हिंदुस्तान या धर्मयुग में छपी थी। मैंने इसे काट कर सम्हाल कर रखा था पर पापा जी के तबादलों के दौरान कहीं खो गई। आज गूगल की कृपा से फिर मिली है। धन्यवाद।

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